फूटी चौराहे की बत्ती
रौशन नहीं है रात
क्या करें उल्लू से बात----
ये संस्कृति उल्लू की पट्ठी
बतला रही कोयल और कौवों के बीच
बंटी धार
देह व्यापार
छंद पुराने कवियों के
कांपते अंग भय से
निकृष्ट कायिक अनुगूंज का
प्रलापालाप
लज्जा है!
लज्जित , लज्जाशील, लजाना
सज्जित कुमारी, शील दिखाना
पाँव के विपरीत हाथों से चलने की प्रथा
मुंह के आगे लटके परदे की व्यथा!
अन्धकार रश्मि, आवाहन
संस्कृति चिरंतन,पुनर्मंथन
कारक है अग्नि
कहीं तीव्र कहीं मंद
कहीं कैद कहीं स्वच्छंद
तमाम उम्र तमाम बार,
झेले हैं नग्न हो अत्याचार
अग्नि तीव्र है!
चीर छूट कर गिर गया
आंसूओं में बह गया,
आशा अभिलाषा का पूरा
एक प्याला उड़ेल दिया
अग्नि मंद है!!
ह्रदय पर है तीव्र दबाव
किस प्रकार ये रंग-ओ-आब
महमहाने से रुके
महमहाते ही मर्दित न हो जाए
बस
अग्नि कैद है|
आकुलता है अंतड़ियों में
छूट गयी है रोम से बूँद रक्त की
टूट गयी है गर्भगृह पूजा भक्त की
अग्नि स्वच्छंद है!
मांस की दो चार परत लपेटे,
मूक है शक्ति जिसकी--------
वह अस्थिमज्जा है|
लज्जा है
फड़क उठे लोचन
हुआ मृदुल गायन
ये क्षण हैं कुछ जिनमे
लज्जा का अवतार अपने अस्तित्व का प्रमाण ढूँढता है
मैं ढूंढ रहा हूँ लज्जा किसकी अवैध जनित
किस ब्याह का परिणाम,
क्यों नारी में है अधिक परिमाण
जिसकी ईंटों को स्पर्श कर कभी
सुखद अनुभूति दे जाती है
वह किस रस का छज्जा है
लज्जा है!!!
मैं
निराला- ताक कमसिन वारि
दिनकर-उर्वशी
प्रसाद-कामायनी
इनमे लज्जा के अंग अंश देखता हूँ
पहले कहे गए( पहले लिखे गए)
के अनुसार,
लज्जा अवैध जनित
उत्पत्ति का आशय
यदि साहित्यिक है
तो किसका था ये आमाशय
जो पचा न सका इसे
और ये बिखर गयी,
मैं
स्वयं का पूर्ण वर्णन नहीं करता
लज्जा है
काम के द्वार पर आध्यात्म पानी नहीं भरता
लज्जा है
वे स्वप्न मैं बतलाता नही,
लज्जा है
मूत्रदान संस्कृति का अंग कहलाता नहीं
लज्जा है
न जाने क्यों हवा इधर आती नहीं
लज्जा है
बे-इज्जत गली की कुतिया अब चिल्लाती नहीं
लज्जा है
वह खामोश है,
लज्जा है |
लज्जा बेहोश है
लज्जा है |
बुझता दीपक फिर से झिलमिलाता है,
लज्जा है
राकेश एक अमावस छिप भी जाता है
लज्जा है |
सूर्य का संधान सदैव रश्मियों पर नहीं,
लज्जा है |
लाली चमक रही पश्चिम में कहीं
लज्जा है |
लज्जा, छंद, अलंकार या रस,
या धुँआ-ए-सिगरेट का कश
जनवाणी,
विदूषक को लज्जा नहीं,
नगरवधू को लज्जा नहीं |
ये हैं वस्तु
क्योंकि वस्तु को लज्जा नहीं |
अंततः
मुझे लगता है|
तमाम कवियों की राय
लज्जा न जाने किस-किस-का है आभूषण
मैं भी यही कह दूं,
पुराना परिपेक्ष्य
नया क्षेत्र,
पावन-गेह पर जिसके,
इकट्ठे हो, बुद्धिजीवी/बेहया समाज की
विवेकशून्यता या,
चिता की जो साज सज्जा है
वह लज्जा है |
मैं इस कविता को निराशा की गर्म राख फांकते हुए बयान कर रहा हूँ|
मैं नही चाहता था कि कोई कभी मेरी ये कविता पढ़े, किन्तु यह शायद मुमकिन नही|
मैं अंततः मौन रह जाता हूँ|
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