पिछले कुछ दिनों या वर्षों में संस्कृति के एक नए अध्याय से रूबरू हुआ हूँ|
ये कुछ नई सी परम्परा है युवाओं के किंकर्तव्यविमूढ़ झुण्ड की|
सिगरेट, दारू (कई प्रकार-वाइन, व्हिस्की, वोदका, टकीला, नीली परी, बैगपाइपर से लेकर ‘सेकुलर बीयर तक) और कुछ उच्च स्तरीय नशे हमारे सामाजिक स्तर के पर्याय से बन गए हैं|
एक कार्यक्रम के तहत आमिर खान इस बाबत प्रयासों में जुटे हैं, किन्तु मैं इस मुद्दे पर कुछ मनोवैज्ञानिक पक्ष बताता हूँ|
पहला पक्ष सर्वसंवैधानिक सा लगता है|
“यार आज एक्जाम खत्म चलो हो जाए”
“यार इतनी दूर घूमने आये हैं साला एक पैग तो बनता है”
“यार इतनी बड़ी सिटी है कौन देखेगा, फिर यहाँ तो कल्चर भी वही है, चल एक सुट्टे के साथ हो जाए”
ये सब बड़े ही वाजिब कारण हैं नशे के| और यदि आप युवा हैं और इन अमृततुल्य पदार्थो का सेवन नही करते तो इन मौकों पर आप दूध की मक्खी की तरह या तो कम्युनिटी से बाहर हो जाते हैं या बच्चे समझ लिए जाते हैं|
छात्रावास से लेकर किसी पब तक हमारी प्यास बुझ सकती है|
हांलाकि युवा (पुरुष) नशे के इन उपकरणों को अपने पौरुष और शक्ति का एकमात्र पैमाना समझते हैं, ये उनकी स्मार्टनेस को प्रदर्शित करता है और शायद हर महीने नई कली तक भौंरे को पहुचाने का मधुमास भी है यह| उनकी पूरी खूबसूरत दिखने की चाह केवल पब में दो जान पहचान की लड़कियां पाने भर की होती है जिनके साथ वे रंगीनियत की कृत्रिमता बरक़रार रख सकें| सिगरेट पीना एक स्टेट्स सिम्बल हो गया है, और कमरे में पीना तो दब्बुओं की निशानी है बेहतर है कि सरेआम चौराहे पर, यार सड़क पर चलते हुए, किसी से बात करते हुए पी जाए|
युवा पुरुषों के लिए तो जीवन की कोई भी असफलता का एकमात्र सहारा पौये के आँचल की छांह है|
यहाँ काबिल-ए-गौर यह है कि जो लोग तमाम सारे सार्वजनिक नियमों की अनदेखी की बात करते है, वे भी नशे के लिए अपनी आत्मा गिरवी रख सार्वजनिकता की भ्रूण-हत्या कर देते हैं|
मुझे बदहजमी तब होने लगती है जब हमारे दायरे और मित्रता भी नशे पर आधारित हो|
हमारे दो तीन साथी ऐसे हैं जिनकी कुछ खास लोगो से मित्रता का एकमात्र आशय, साथ साथ सिगरेट के कोठे तक जाने भर का है|
लड़कों की हर पार्टी इसके बिना अधूरी है, और मोहब्बत होने से लेकर खत्म होने तक का हर जलसा भी| जब तक कुछ पिया ना जाए, पिया की याद आना बंद ही नही होती|
अगर इतनी बाते लडको या युवा(पुरुष) पर कही गयी हैं, तो अब लड़कियों(युवतियों) की चर्चा भी प्रासंगिक है|
सुंदरता के साथ शील होना १९वी सदी का पैमाना रहा होगा|
आज यही कामुकता सेक्सुअलिटी बनकर आई है और युवतियों के लिए प्रतिस्पर्धा का अबूझ पैमाना बना बैठी है| यदि कभी दारू ना पी जाए, कश ना लगाया जाए तो आखिर कोई हमे घास कैसे डालेगा, ऐसे विचारणीय प्रश्नों का प्रजनन आज नितांत ही सामान्य है|
सेक्सुअलिटी, स्वतंत्रता, युवाओं(पुरुष) के साथ बराबरी, और आधुनिकता(मोडर्निटी) ये चार ऐसे अचूक बहाने हैं जिन्होने युवा(स्त्री) वर्ग को नशे का आलिंगन करने का पथ सुझा दिया है|
खैर युवा वर्ग और नशे पर ये सब कहने के पीछे की बात ये, कि आमिर खान की मुहिम का मैं समर्थन करता हूँ (हालाँकि वे खुद अपनी आदत से मजबूर हैं)|
और एक गुजारिश अपने साथियों से, कि पीना आपकी लाचारी, मजबूरी, बेकारी, बेकरारी हो सकती है किन्तु उसे घटिया सामाजिक चोला मत पहनाइए|
हो सकता है लैंगिक प्रतिस्पर्धा से लेकर मस्तिष्क ज्वर तक के लिए नशा ही आपके लिए पहला और आखिरी उपाय हो गया हो किन्तु उसे सांस्कृतिक गालियाँ देकर सही सिद्ध मत कीजिये|
सत्यमेव जयते
ये कुछ नई सी परम्परा है युवाओं के किंकर्तव्यविमूढ़ झुण्ड की|
सिगरेट, दारू (कई प्रकार-वाइन, व्हिस्की, वोदका, टकीला, नीली परी, बैगपाइपर से लेकर ‘सेकुलर बीयर तक) और कुछ उच्च स्तरीय नशे हमारे सामाजिक स्तर के पर्याय से बन गए हैं|
एक कार्यक्रम के तहत आमिर खान इस बाबत प्रयासों में जुटे हैं, किन्तु मैं इस मुद्दे पर कुछ मनोवैज्ञानिक पक्ष बताता हूँ|
पहला पक्ष सर्वसंवैधानिक सा लगता है|
“यार आज एक्जाम खत्म चलो हो जाए”
“यार इतनी दूर घूमने आये हैं साला एक पैग तो बनता है”
“यार इतनी बड़ी सिटी है कौन देखेगा, फिर यहाँ तो कल्चर भी वही है, चल एक सुट्टे के साथ हो जाए”
ये सब बड़े ही वाजिब कारण हैं नशे के| और यदि आप युवा हैं और इन अमृततुल्य पदार्थो का सेवन नही करते तो इन मौकों पर आप दूध की मक्खी की तरह या तो कम्युनिटी से बाहर हो जाते हैं या बच्चे समझ लिए जाते हैं|
छात्रावास से लेकर किसी पब तक हमारी प्यास बुझ सकती है|
हांलाकि युवा (पुरुष) नशे के इन उपकरणों को अपने पौरुष और शक्ति का एकमात्र पैमाना समझते हैं, ये उनकी स्मार्टनेस को प्रदर्शित करता है और शायद हर महीने नई कली तक भौंरे को पहुचाने का मधुमास भी है यह| उनकी पूरी खूबसूरत दिखने की चाह केवल पब में दो जान पहचान की लड़कियां पाने भर की होती है जिनके साथ वे रंगीनियत की कृत्रिमता बरक़रार रख सकें| सिगरेट पीना एक स्टेट्स सिम्बल हो गया है, और कमरे में पीना तो दब्बुओं की निशानी है बेहतर है कि सरेआम चौराहे पर, यार सड़क पर चलते हुए, किसी से बात करते हुए पी जाए|
युवा पुरुषों के लिए तो जीवन की कोई भी असफलता का एकमात्र सहारा पौये के आँचल की छांह है|
यहाँ काबिल-ए-गौर यह है कि जो लोग तमाम सारे सार्वजनिक नियमों की अनदेखी की बात करते है, वे भी नशे के लिए अपनी आत्मा गिरवी रख सार्वजनिकता की भ्रूण-हत्या कर देते हैं|
मुझे बदहजमी तब होने लगती है जब हमारे दायरे और मित्रता भी नशे पर आधारित हो|
हमारे दो तीन साथी ऐसे हैं जिनकी कुछ खास लोगो से मित्रता का एकमात्र आशय, साथ साथ सिगरेट के कोठे तक जाने भर का है|
लड़कों की हर पार्टी इसके बिना अधूरी है, और मोहब्बत होने से लेकर खत्म होने तक का हर जलसा भी| जब तक कुछ पिया ना जाए, पिया की याद आना बंद ही नही होती|
अगर इतनी बाते लडको या युवा(पुरुष) पर कही गयी हैं, तो अब लड़कियों(युवतियों) की चर्चा भी प्रासंगिक है|
सुंदरता के साथ शील होना १९वी सदी का पैमाना रहा होगा|
यदि आपने प्राचीन हिंदू साहित्य पढ़ा हो तो मालूम होगा, जहाँ सौंदर्य के
प्रवाह में कामुकता को भी स्थान मिला है| अब देखिये, समय स्वयम को दोहराता
है|
आज यही कामुकता सेक्सुअलिटी बनकर आई है और युवतियों के लिए प्रतिस्पर्धा का अबूझ पैमाना बना बैठी है| यदि कभी दारू ना पी जाए, कश ना लगाया जाए तो आखिर कोई हमे घास कैसे डालेगा, ऐसे विचारणीय प्रश्नों का प्रजनन आज नितांत ही सामान्य है|
सेक्सुअलिटी, स्वतंत्रता, युवाओं(पुरुष) के साथ बराबरी, और आधुनिकता(मोडर्निटी) ये चार ऐसे अचूक बहाने हैं जिन्होने युवा(स्त्री) वर्ग को नशे का आलिंगन करने का पथ सुझा दिया है|
खैर युवा वर्ग और नशे पर ये सब कहने के पीछे की बात ये, कि आमिर खान की मुहिम का मैं समर्थन करता हूँ (हालाँकि वे खुद अपनी आदत से मजबूर हैं)|
और एक गुजारिश अपने साथियों से, कि पीना आपकी लाचारी, मजबूरी, बेकारी, बेकरारी हो सकती है किन्तु उसे घटिया सामाजिक चोला मत पहनाइए|
हो सकता है लैंगिक प्रतिस्पर्धा से लेकर मस्तिष्क ज्वर तक के लिए नशा ही आपके लिए पहला और आखिरी उपाय हो गया हो किन्तु उसे सांस्कृतिक गालियाँ देकर सही सिद्ध मत कीजिये|
सत्यमेव जयते