मेरे लगभग पचास बंगाली मित्र तो होंगे । बी एच यू से, आई आई एस ई आर से, वैज्ञानिक वर्ग से, शिक्षा जगत से।
यद्यपि तृणमूल का जीतना बंगाल के विकास की एक बड़ी त्रासदी है,
एक
पढ़ा लिखा राज्य गरीबी और बदहाली में अभिशप्त है। फिर भी तृणमूल जीत गयी। ये तृणमूल
की विजय नहीं, बल्कि भाजपा की पराजय है।
उन पचास मित्रों में से मैंने एक को भी भाजपा की हार पर ग़मज़दा नहीं देखा। कारण स्पष्ट है, भाजपा इस चुनाव में लोगों के लिए नहीं वोटों के लिए लड़ी। एक वाशिंग मशीन कल्चर बना जिसमें तृणमूल के भ्रष्ट नेता धुलकर साफ भाजपाई हो जा रहे थे। एक प्रचार का कल्चर बना जिसमें देश के पंतप्रधान दूरी और मास्क को धता बताकर, भीड़ देख कर, दो साल के बच्चे की तरह उत्साहित थे। ऐसी संस्कृति से सर्कस चल जाते हैं, दो, चार, छह साल। सरकारें नहीं बनती। नहीं चलती।
भाजपा का 2014 का उदय बहुत प्रभावशाली था, इसलिए
नहीं कि मोदी बड़े नेता हैं, न इसलिये कि हिन्दू 'खतरे'
में
भाजपा को ही वोट देगा। बल्कि इसलिए कि लोगों को उम्मीद दिखती थी। बहुत सारे लोगों
को उम्मीद दिखती थी। कुछ को 370 हटाने की, कुछ को मन्दिर
बन जाने की। जैसी जिसकी उम्मीद थी, दिखती तो थी।
बस उसी भरोसे ने नोटबन्दी, हिट एंड ट्रायल्स ऑफ जी एस टी, हिट एंड ट्रायल्स ऑफ पॉलिसीस, जोक ऑफ डेमोक्रेसी (महाराष्ट्र की रात वाली सरकार), जोक ऑफ पब्लिक प्रोटेस्ट (सी ए ए, कृषि कानून) - के रूप में अपनी धज्जियां उड़ा लीं।
अब एक निष्ठावान कार्यकर्ता पूछेगा कि भाजपा क्या करती, क्या
झुक जाती? जवाब है नहीं। लोकतंत्र में झुकना नहीं उठना जरूरी है। बोलना जरूरी
है, पर सुनना भी जरूरी है। एकतरफा संवाद नहीं, वार्तालाप जरूरी
है। चाय पर चर्चा बोलना ही नहीं, विपरीत धाराओं को जगह देना भी जरूरी
है। आप नहीं देते तो आप दीदी से कितना बेहतर हो।
बस यही था। सबको पता था कि दीदी के आने से न अविकसितता रूपी बंजरपन खत्म होगा, न साम्प्रदायिक तुष्टिकरण, न राजनीतिक हत्याएं। पर फिर जनता को लगा "और ऑप्शन क्या है?" भाजपा जमीन छोड़कर सूर्य लपकना चाहती है। हर राज्य में, हर चुनाव में। बस यही, दुर्भाग्य से, उसके अंत की ओर जाता हुआ रास्ता है। कार्यकर्ताओं को चिंतामुक्त रखने वाली पार्टी आज कार्यकर्ताओं की लाशें देखकर भी चुनाव रैली करना चाहती है।
18 अप्रैल को मोदी की बंगाल रैली ने भाजपा का भविष्य अगले कई वर्षों के
लिये सुनिश्चित कर दिया था ।
बस यही कारण है, कि पचास के सैम्पल साइज़ पर भी मुझे कोई भाजपा के हारने ओर ग़म जताने वाला नहीं मिला।
बाक़ी दिल बहलाने को और ‘साहब’ के गुण गाने को, असाम की जीत अच्छी है।
bahut sahi aur sateek
ReplyDeleteभाजपा की पराजय कहाँ है? उपविजेता बनी है, हारने वाले कांग्रेस और वामपंथ में हैं। पिछले चुनाव की तुलना में अपेक्षा से अधिक जीत दर्ज करते हुए भाजपा ने पश्चिम बंगाल को हिंदी में समझाया कि भद्रलोग भी सनातनी हैं।
ReplyDeleteअब चुनावों में चरित्र और विज़न पर बात नहीं होती, शहाबुद्दीन की मृत्यु पर नीतीश कुमार आंसू बहाते हैं। इसलिए पश्चिम बंगाल में तृणमूल को निष्कलंक मानने में कोई बुराई नहीं, भाजपा को बाहरी बताने में भी कोई बुराई नहीं। भाजपा तृणमूल और वामपंथ और "धर्म निरपेक्षता" के घर में घुसने में सफल हुई है। बंगाल में चुनावी रैलियों में हिंदी का प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है, "हिंदुस्तानी" का प्रभाव बढ़ रहा है। यह एक अंतराल निर्धारित करेगा।
मुसोलिनी की तर्ज में विजय से पहले विजय का ऐलान करके मोदी ने न केवल बंगाल बल्कि असम में भी अपना जाल बढ़ाया, उत्तर बंगाल में भाजपा बहुत अच्छी तरह दिख रही है। इस चुनाव में वामपंथ हारा है, दुःखद है। भाजपा हर सूरत में अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करने में सफल हुई है, कोरोना के समय मे बिना कोई काम किये भाजपा ने जनता को रिझाने में मजबूत कदम बढ़ाए हैं। भाजपा और बेहतर प्रदर्शन करती यदि बंगाल में महाराष्ट्र या उत्तर प्रदेश की तरह मुख्यमंत्री के सशक्त उम्मीदवार ला पाती। यदि भाजपा इस चुनाव में एक महिला मुख्यमंत्री उम्मीदवार पेश कर पाती, तो दैवीय कृपा से और जीत सकती थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि सौंदर्य ऊर्जा का संचार करता है, पश्चिम बंगाल के इस चुनाव में सौंदर्य की संभावनाएं हारी हैं। हिंसा की राजनीति की जीत हुई है, और वे सब विधानसभा जा रहे हैं। इस हार में वामपंथ के उत्तराधिकारी संस्थान जेएनयू अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जादवपुर आदि के मुखर शिक्षार्थियों को वामपंथ पर तरस खाते हुए केरल में एक सेमिनार का आयोजन कर इतिहास पर अहसान करना चाहिये।
उत्तम विश्लेषण !
ReplyDelete