Monday, 30 December 2013

ये आदत पुरानी है............

तुम्हारी ही नज़र में आग है बाकी तो पानी है,
नही लेना ससुर से कुछ तो केवल कार आनी है,

तुम्हारी जीभ से होती मोहब्बत की है बारिश,
बहन की गालियाँ देने की बस आदत पुरानी है,

अहिंसा की गली के बीच में है घर तुम्हारा पर,
मगर बीवी को जूता मार कर इज्जत कमानी है,

पड़ोसन देख कर छत पर टंगे रहते तेरे कुर्ते,
मगर बच्ची को कितना पहनने की आनाकानी है,

जलाते मोमबत्ती दो जगह कोठे , दुराहे पर,
कहीं भाषण कहीं पर नथ उतर बोली लगानी है,

भले फूलों की खुशबू से न क्यों प्यारा लगे गुलशन,
मगर उनको मसलने की जो आदत खानदानी है........

Sunday, 29 December 2013

Mera Dharm मेरा धर्म

आँधियों पूरी ताकत लगा देना,
ताकि फिर ना कहना पड़े तुम्हे,
कि तुम्हारे दिल में उतरा था,
कोई ठंडा झोंका हवा का,
क्योंकि मैं 'दिया' ,
कतई मोहताज नहीं,
कतई इच्छुक नहीं,
तुम्हारी दया का,
तुम्हारी भिक्षा का,

नहीं नहीं,
मत सोचना कि तुम्हारा अस्तित्व,
देता है ऑक्सीजन मेरे जलने को,
वो तो अधिकार है मेरा,
और मैं उसे पाता रहूँगा,
बस,
बस, जलना तुम्हारे 'साथ पर' सही,
पर तुम्हारे 'साथ में' नहीं,

यह प्रतिरोध की लौ है,
खाक से बने बारूद की,
अनगिनत हड्डियों से बने कोयले की लौ,
मेरे बहते लहू से बने तेल की लौ,
मेरी नसों से बनी बाती की लौ,
यह तुम्हारी किसी भीख से बुझेगी ?
तुम्हारे अट्टहास से मेरी चीख दबेगी ?

नहीं नहीं,
मत सोचना कि तुम्हारा वेग,
तुम्हारा आकार,
तुम्हारी भयावहता,
छीन सकती है ,
मेरा जलने का धर्म,
मेरी जलने की जाति,
वो तो कभी छू भी नहीं पायेगी,
मेरी राख का राज्य,
गर मैं पूरा जल भी गया तो,

नहीं नहीं,
मुझे नहीं सोचना ,
कि मिले मुझे कोई उत्तराधिकारी,
जो मेरे बाद भी तुम्हारे प्रतिरोध में,
प्रभात करता रहे किसी काली रात में,
मेरी संपत्ति मैं खुद हूँ,
मेरी जमानत भी,
मेरी ज़मीन भी,
मेरी हुकूमत भी,
इसीलिए,
हड्डियों के राख होते चूरे तक,
आँखों की जलती हुई पलकों तक,
खून के आखिरी अंश तक,
बस जलने की परम्परा वाले वंश तक,
मैं जलूँगा,
मैं जलूँगा,
आँधियों पूरी ताकत लगा देना.
  
---© प्रभात



Monday, 7 October 2013

जलाओ पुतले, मगर उसूल नहीं.........

इंडिया टुडे की तमाम उपलब्धियों में से एक इस वर्ष महात्मा गाँधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोगों पर आलेख और मनु के इस सम्बन्ध में लिखे गए पत्रों का प्रकाशन भी रहा, वैसे हर वर्ष गाँधी का जन्मदिवस इसी तरह मनता है, लोग विरोध करते हैं कि क्यों, आखिर क्यों एक सनकी, हठी और वासना को ब्रह्मचर्य से जोड़ने वाले व्यक्ति को राष्ट्रपिता का अनौपचारिक किन्तु बहुप्रचारित दर्जा दिया गया है.
तमाम सारे बौद्धिक विमर्श रोज होते रहते हैं. आज भी हो रहे होंगे. मैं इन सब से दूर यहाँ बैठा डार्क नाईट राइजेस फिल्म देख रहा था. वैसे भी जोनाथन नोलन और क्रिस्टोफर नोलन की पुरानी आदत है विचारधाराओं, आदर्शों का संघर्ष दिखलाना और उसे बहुत हद तक फिल्माने में सफल भी होते हैं.

तो, कमिश्नर गॉर्डोन के एक संवाद को सुन रहा था पहले भी कई बार सुना है पर आखिरी पंक्ति को बार बार सुनना पड़ गया -

'There's a point, far out there when the structures fail you, and the rules aren't weapons anymore, they're... shackles letting the bad guy get ahead. One day... you may face such a moment of crisis. And in that moment, I hope you have a friend like I did, to plunge their hands into the filth so that you can keep yours clean!'

कहीं ना कहीं दोहरे चेहरे के हार्वी डेंट की भी याद हो आई जिसने अपने आदर्शवादी चेहरे को जलाकर प्रतिशोध के एक खलनायक का रूप ले लिया था, किन्तु कुछ भी हो, लोग उसे आदर्शवाद का पुतला समझते रहे क्योंकि वह उस रूप में स्थापित था, इसीलिए उसकी मौत भी उसे नायक के रूप में स्थापित कर गयी और उसके नाम पर बना एक्ट कई मुजरिमों को जेल में विस्थापित करता रहा.

लेकिन 'आप हीरो की तरह लड़ते रहते हैं तब तक जब तक कि आप खुद विलेन ना हो जाएँ'
और 'लोगों का भरोसा बना रहना चाहिए, आदर्शवाद के पुतले का सच सामने नहीं आना चाहिए' ये सब कहना पड़ता है करना पड़ता है तब जबकि लोग हताश हों, हिम्मत खो रहे हों, हमे ऐसे पुतले बनाने पड़ते हैं.

मुद्दे की बात, गाँधी का सच क्या है पता नहीं , शायद वही हो जो आजकल शोध से निकाला जा रहा है, हो सकता है कि उनकी छवि जैसी दिखलाई गयी है उससे काफी उलट हो. पर ऐसा नहीं है कि वह शख्श जीवन भर ऐसा रहा हो. अगर अफ्रीका में अपमानित होने पर अंग्रेजों के तलवे चूमे होते (जैसा कि कई भारतियों ने उस समय किया भी तो क्या फर्क पड़ता , आखिर साबरमती आश्रम लन्दन में बनता और तमाम विदेशी छोरियां बापू की अनुयायी भी. किन्तु ऐसा कुछ तो नहीं हुआ ना. ये कुछ अजीब नहीं लगता कि ऐसा व्यक्ति जिस पर आरोप लगते रहे हों अंग्रेजों से अच्छे सम्बन्ध के , वह क्या जेल भी कोई ब्रह्मचर्य के प्रयोगों के लिए जाता था, वह भी उस बुढ़ापे में जब चलना दूभर रहता है .
मैं मानता हूँ वह सत्यवादी नहीं रहा होगा, ब्रह्मचर्य के नाम पर वासना में जला होगा, पर उसने जो भी किया उसके लिए वह जिम्मेदार था, खुद को दिखाते हुए कि हाँ मैं हूँ जिसने ये किया, तभी गॉर्डोन के कहे इस वाक्य पर मेरा ध्यान जाता है, ' किसी को अपने हाथ गंदे करने पड़ते हैं ताकि तुम अपने हाथ साफ़ रख सको.'

नेताजी के निष्कासन से लेकर बंटवारे तक गांधीजी अकेले दोषी नहीं , किन्तु वे वह प्रतिमा हैं जिस पर भीड़ एक ओर से एक जूते फेंकती हुई और दूसरी ओर से माला फेंकती हुई निकलती है. इन सबके बावजूद, भरोसा भी एक चीज है जो बना रहता है और बना रहना चाहिए चाहे जूते वालों का हो, या माला वालों का.

और शायद अगले तमाम वषों तक कोई और आदर्शवाद का वह पुतला बन भी ना सके जो कि गाँधी हैं.

30 जनवरी 1948 को गाँधी की हत्या कर दी गयी थी, लेकिन अगले ही दिन उसे फिर से एक आदर्शवाद की प्रतिमा के रूप में स्थापित कर दिया गया, और वो शख्श फिर से तैयार था, ईमानदारी से, अपनी जिम्मेदारियों से ना भागते हुए, हमारी उम्मीदों का बोझ उठाने के लिए, हमारी गालियों को सुनने के लिए....

'I see a beautiful country* and a brilliant people rising from this abyss. I see the lives for which I lay down my life, peaceful, useful, prosperous and happy. I see that I hold a sanctuary in their hearts, and in the hearts of their descendants, generations hence. It is a far, far better thing that I do, than I have ever done; it is a far, far better rest that I go to, than I have ever known.'

*'city' at the place of 'country' in the original text.
Quoted by Gordon in Dark Knight Rises originally from 'A Tale of Two Cities' by Charles Dickens

Wednesday, 14 August 2013

बेटे आजाद हुए, माँ गुलाम रह गयी..............................



बंगाल  में बिताए  पिछले  दो  महीनों के  अंत  में  मैं  जरा घूमने  को  निकला  था,  और  काफी  दूर दूर घूमने  के  बाद  लाल बाजार के  चर्च  में  पहुंचा, जहाँ  ईश्वर  का  सन्देश  सुनाया  जा  रहा  था,  फिर  प्रार्थना  हुई  जो  कि  पियानो  पर  दिए  गये  पार्श्व-संगीत  के  साथ  गाई जा रही  थी |  करीब  सौ  लोगों  ने  एक  साथ  जैसे  ही गाना  शुरू किया  मुझे  उस  बड़े  से  हॉल  के  अन्दर  कुछ  अजीब  सा  महसूस  हुआ  जो  मैं  बयां   नहीं  कर  सकता |

आज  याद  आया   एक  बार  और  भी  वैसा  महसूस  हुआ,  जब  काशी हिन्दू  विश्वविद्यालय  में  कृष्ण जन्माष्टमी  का कार्यक्रम  था  और   करीब  दो सौ लोगों  ने  एक  साथ  कुछ  गीत  या  आरती  वगैरह  गए  थे,  मैं  उस  दिन  भी उपर  की मंजिल  से  निहारता  हुआ  कुछ पल को  ठहर  गया  था |

एक  बार  और  भी  ऐसा  हुआ  जब  मेरे  एक  सहपाठी  ने  रमजान  के  महीने  में  मुझे  एक  नोहा  सुनाया.  और  मुझे  एक  अलग  एहसास  का  दीदार  हुआ.

लेकिन  कभी  मेरी  जिन्दगी  में  ये  लम्हे  रोज  आया  करते  थे   जब  हमारे  छोटे  से  स्कूल  में  छुट्टी  के  समय  वन्दे  मातरम्  और   जन-गण-मन   का  सामूहिक  सस्वर  गायन  होता  था |  मुझे  याद  है  कई  बार  गाते  गाते  मैं  अपनी  आँखें  बंद  कर  लेता  था   और  महसूस  करता  था  मानो  उस  लम्बे  चौड़े  खेल  के  मैदान  में  मैं  अकेला  खड़ा  हूँ |

पर  अगर  कभी  मैंने  इस  अनुभव  को  सबसे  गहराई  से  जिया  है  तो  वह  कुछ  लम्हों  के  लिए  नहीं,  अपितु  पूरे  दिन  भर  के  लिए |  और  यह  मौका 
15 अगस्त  के  दिन  ही  आता  था  जब  सुबह  कंधे  पर  स्कूल  का  बस्ता  होने  की  बजाय  हाथ  में  एक  छोटा  सा  तिरंगा  हुआ  करता  था,  और  रिक्शे  से  जाने  की  बजाय  पैदल  सारे  स्कूलों को  देखते  हुए  जाना   पसंद  आता  था  |

सुबह  सात  बजे  ही  स्कूल  पहुचना  और  तमाम  सारे  कार्यक्रमों  की  ऐसे  जानकारी  लेना  जैसे  कि  प्रधानमंत्री  के  सचिव   क्या  लाल किले  का  बंदोबस्त  देखते  होंगे,  यह  भी  अपना  प्रिय  शगल  था |  और  फिर  वे  क्षण  जिनका  उल्लेख  शुरुआत  में  ही  किया  था,  उनमे  लाल सफ़ेद  हरे  रंग  का  घुलना  और  मिला  दीजिये,  उसके  बाद  के  एक  डेढ़  मिनट  तक  जो  कुछ  होता  था  वह  शायद  जीवन  भर  याद  रहने  वाला  अनुभव  है |

यूँ  कुछ  और  खास  सांस्कृतिक  करतबों  के  साथ  हमारा  दिन  बीत  जाया  करता  था,  और  उस  दिन  की  शाम  का  आना  सबसे  ख़राब  लगता  था  क्योंकि  दो  कंधे  ये  एहसास  कर  लिया  करते  थे  कि   अब  यह  साल   भर  बाद  ही  आएगा,  एक  हथेली  अपने  हाथ  में  साल  भर  अब  बर्फ  के  गोले  की  डंडी  ही  पकड़ेगी,  उस  छोटे  तिरंगे  को  थामे  रखना  साल  भर  बाद  ही  हो  सकेगा |

मैंने  कई  बार
15अगस्त की  रात  में  जागते  हुए  भी  ये  सोचा  कि  क्या  ये  तीन रंग  जो  मेरा  पसंदीदा  समायोजन  हैं,  क्या  मैं  इन्हें  साल  भर  नहीं  देख  सकता  ,  साल  भर  अपने   पास  कुछ  खास  रूपों  में  नहीं  रख  सकता,  उस  समय  बड़ी  दीदी  ने  कुछ  कानून  और  कायदे  टाइप  समझाये  जो  कुछ  खास  समझ में  तो  नहीं  आये  किन्तु  कुछ  ही  समय  बाद  ये  खबर  जरूर  मिली  कि  अब  ये  तीन  रंग  आप  कभी  भी  उपयोग  में  ला  सकते  हैं,  तिरंगा  कभी  भी  लगा  सकते  हैं |  वह  दिन  भी  मेरे  लिए  बड़े  सुकून  का  था  और  कुछ  सालों  बाद  जब  मैं  इतना  स्वतंत्र  हुआ  कि  कुछ  कपड़े  खुद  से  खरीद  सकूं  तो  एक  दो  कमीजों  में  जेब  के  ठीक  ऊपर  तीन  रंगों  की  धारियां  फेर  दीं |  वो  बात  और  है  कि  यह  प्रायः  बेवजह  लोगों  के  ध्यानाकर्षण  का  कारण  बन  जाया  करता था/है |

आज  यह  सब  क्यों  लिखा > ??
पिछले  कई  सालों  से  इस  एक  दिन  या  अन्य  राष्ट्रीय  दिवसों  की  प्रासंगिकता  पर  लोगों  से  टीका-टिप्पणियां  सुनता  आया  हूँ |  इस  साल  भी  होंगे,  शर्तिया  फेसबुक,  अखबार, विविध  भारती,  एफएम  इत्यादि  इत्यादि  पर  तमाम  जगह  तमाम  लोग  अपने  अपने  ढंग  से  इस  पर  चर्चा  करेंगे  कि  आज  के  दिन  इतना  उल्लास  क्यों?  यथा,  भारत  पूरी  तरह  आजाद  नहीं  है,  हमारे  घर  में  ना  सही  हमारे  नौकर  के  घर  में , बहुत गरीबी  है,  हमारा  समाज  छोटी  सोच  का  है,  हमे  सुविधा  नहीं  है,  हमे  समर्थन  नहीं  है,  हमारा  जिला  अलग  नही  है  हमारा  राज्य  अलग  नहीं  है,  हमे  आरक्षण  नहीं  है,  बिहार  में  नौकरी  नहीं  मिल  रही,  मुंबई  में  बिहारी  नहीं  रह रहे, जम्मू  से  पंडित  निकले  गये, दिल्ली  में  पानी  नहीं,  यूपी  में  ईमानदारी नहीं, हमारे  ऊपर  पाकिस्तान  का  हमला  है,  चीन  का  अजगर  है,  फलाना ढिकाना |  
ये  सारे  कारण  हैं  जिन्हें  सुनने  या  पढने  के  बाद  तमाम  लोग  राय  देते  हैं  इसके  समर्थन  में  कि  वाकई  आज  के  दिन  यह  सब  आयोजन  आजादी  के  बाद  की  तमाम  भूलों  में  से  एक   है  या  कम  से  कम ध्वजारोहण के  बूंदी  के  लड्डू  खा  लेने  के बाद  तो  स्वतन्त्रता दिवस  कतई  ही नहीं  मनाते  हैं |  हालाकि  मैंने  ऐसे  लोगों  को  दिवाली,  ईद,  प्रकाश पर्व, क्रिसमस  और  सेकुलर आयोजन  नए साल (सॉरी नव संवत्सर भी  है)  पर  ऐसा  रुख  या  तेवर अपनाते  नहीं  देखा,  वे  होली  को रंग  फेंकते  हैं,  मुहर्रम मनाते  हैं , कैंडिल  जलाते  हैं ........
तब  एक  देश  के  एक  छोटे  से  उल्लास  भरे  आयोजन  पर  ही  सारी  तर्क  और  तूरीण  क्यों ?  क्या  यह 
15 अगस्त  और  26
जनवरी  नाम  के  दो  दिनों  के  खाते  में  ही  लिखा  गया  है ?  इतना  दुर्भाग्यशाली  शायद  ही  कोई  देश  होगा  जहाँ  हम  अपने  सार्वभौमिक  से  त्योहारों  पर  आलोचना  के  तरकश  से  तीर  बरसाते  हैं,  और  अपने  निरोध  जैसे  धर्म, जाति  और  समाज  के  त्योहारों  पर  सारे  उल्लास  और  उत्सवधर्मिता की  सारी  पराकाष्ठाएं  दिखला  देते  हैं |  इस  अजीब  से  वैचारिक  मतभेद  का  भेद  क्या  है,  मुझे  पता  नहीं,  किन्तु  मैं  इतना  जरूर  कहूँगा  कि  मैं  स्वयम  इस  दिन  को  कभी  भुला  नहीं  सकता |  यह  मेरे  बचपन  से  अब  तक  का  शायद  सबसे  प्रतीक्षित  रहने  वाला  दिन  रहा  है | और  रहेगा  भी |
माफ़  कीजिये  ये  दुर्भाग्य  भी  है  कि  कुकर्मी  अधिनायकों  ने,  और  हम  आप सबने   इन  दिनों  पर  छुट्टी  घोषित  करके  कर्मठता  के  सबसे  एकीकृत  स्वरुप  के  प्रतीक  दिवस  को  अकर्मण्यता  दिवस  बना  दिया  है |


   
कुछ  घंटों  बाद  ही  वह  जो  कुछ  उत्सव  जैसा  है  जिसे  मनाने  का  मैं  हमेशा  इन्तजार  करता  था,  आने  वाला  है  |  पिछले   कुछ  सालों  से  ये  क्रम  टूट  चुका  है |  अब  सुबह  देर  से  उठता  हूँ  इस  दिन  भी  सात  आठ  तो  बज  ही  जाते  हैं,  फिर  हॉस्टल  के  गेट  पर  पहुचता  हूँ  साढे  दस  के  करीब  या  कभी  कभी  एम्फीथियेटर  भी  चला  जाता  हूँ  कुलपति  का  कार्यक्रम  इत्यादि  देखने  |  शाम  चार  बजे  तक  की  उपलब्धि  केवल  कुछ  दो  चार  लड्डू  या  मिठाई  रहती  है  बस  शाम का  ही  इन्तजार  रहता  है |  जब  अपनी  एक  दो  बांसुरी  और  वह  डायरी  जिसमे  कुछ  देशभक्ति  के  अपने  गीत मैंने  लिख  रखे  हैं ,  उठा  कर  घाट  की तरफ  चल  देता  हूँ |