बंगाल में बिताए
पिछले दो महीनों के
अंत में मैं
जरा घूमने को निकला
था, और काफी
दूर दूर घूमने के बाद
लाल बाजार के चर्च में
पहुंचा, जहाँ ईश्वर का
सन्देश सुनाया जा
रहा था, फिर प्रार्थना
हुई
जो कि पियानो
पर दिए गये पार्श्व-संगीत
के साथ गाई जा रही
थी | करीब सौ
लोगों ने एक
साथ जैसे ही गाना
शुरू किया मुझे उस
बड़े से हॉल
के अन्दर कुछ
अजीब सा महसूस
हुआ जो मैं
बयां नहीं कर
सकता |
आज याद आया एक बार और भी वैसा महसूस हुआ, जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में कृष्ण जन्माष्टमी का कार्यक्रम था और करीब दो सौ लोगों ने एक साथ कुछ गीत या आरती वगैरह गए थे, मैं उस दिन भी उपर की मंजिल से निहारता हुआ कुछ पल को ठहर गया था |
एक बार और भी ऐसा हुआ जब मेरे एक सहपाठी ने रमजान के महीने में मुझे एक नोहा सुनाया. और मुझे एक अलग एहसास का दीदार हुआ.
लेकिन कभी मेरी जिन्दगी में ये लम्हे रोज आया करते थे जब हमारे छोटे से स्कूल में छुट्टी के समय वन्दे मातरम् और जन-गण-मन का सामूहिक सस्वर गायन होता था | मुझे याद है कई बार गाते गाते मैं अपनी आँखें बंद कर लेता था और महसूस करता था मानो उस लम्बे चौड़े खेल के मैदान में मैं अकेला खड़ा हूँ |
पर अगर कभी मैंने इस अनुभव को सबसे गहराई से जिया है तो वह कुछ लम्हों के लिए नहीं, अपितु पूरे दिन भर के लिए | और यह मौका 15 अगस्त के दिन ही आता था जब सुबह कंधे पर स्कूल का बस्ता होने की बजाय हाथ में एक छोटा सा तिरंगा हुआ करता था, और रिक्शे से जाने की बजाय पैदल सारे स्कूलों को देखते हुए जाना पसंद आता था |
आज याद आया एक बार और भी वैसा महसूस हुआ, जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में कृष्ण जन्माष्टमी का कार्यक्रम था और करीब दो सौ लोगों ने एक साथ कुछ गीत या आरती वगैरह गए थे, मैं उस दिन भी उपर की मंजिल से निहारता हुआ कुछ पल को ठहर गया था |
एक बार और भी ऐसा हुआ जब मेरे एक सहपाठी ने रमजान के महीने में मुझे एक नोहा सुनाया. और मुझे एक अलग एहसास का दीदार हुआ.
लेकिन कभी मेरी जिन्दगी में ये लम्हे रोज आया करते थे जब हमारे छोटे से स्कूल में छुट्टी के समय वन्दे मातरम् और जन-गण-मन का सामूहिक सस्वर गायन होता था | मुझे याद है कई बार गाते गाते मैं अपनी आँखें बंद कर लेता था और महसूस करता था मानो उस लम्बे चौड़े खेल के मैदान में मैं अकेला खड़ा हूँ |
पर अगर कभी मैंने इस अनुभव को सबसे गहराई से जिया है तो वह कुछ लम्हों के लिए नहीं, अपितु पूरे दिन भर के लिए | और यह मौका 15 अगस्त के दिन ही आता था जब सुबह कंधे पर स्कूल का बस्ता होने की बजाय हाथ में एक छोटा सा तिरंगा हुआ करता था, और रिक्शे से जाने की बजाय पैदल सारे स्कूलों को देखते हुए जाना पसंद आता था |
सुबह सात
बजे ही स्कूल
पहुचना और तमाम
सारे कार्यक्रमों की
ऐसे जानकारी लेना
जैसे कि प्रधानमंत्री
के सचिव क्या
लाल किले का बंदोबस्त
देखते होंगे, यह भी
अपना प्रिय शगल था
| और
फिर वे क्षण
जिनका उल्लेख शुरुआत
में ही किया
था, उनमे लाल सफ़ेद
हरे रंग का
घुलना और मिला
दीजिये, उसके बाद
के एक डेढ़
मिनट तक जो
कुछ होता था
वह शायद जीवन
भर याद रहने
वाला अनुभव है |
यूँ कुछ और खास सांस्कृतिक करतबों के साथ हमारा दिन बीत जाया करता था, और उस दिन की शाम का आना सबसे ख़राब लगता था क्योंकि दो कंधे ये एहसास कर लिया करते थे कि अब यह साल भर बाद ही आएगा, एक हथेली अपने हाथ में साल भर अब बर्फ के गोले की डंडी ही पकड़ेगी, उस छोटे तिरंगे को थामे रखना साल भर बाद ही हो सकेगा |
मैंने कई बार 15अगस्त की रात में जागते हुए भी ये सोचा कि क्या ये तीन रंग जो मेरा पसंदीदा समायोजन हैं, क्या मैं इन्हें साल भर नहीं देख सकता , साल भर अपने पास कुछ खास रूपों में नहीं रख सकता, उस समय बड़ी दीदी ने कुछ कानून और कायदे टाइप समझाये जो कुछ खास समझ में तो नहीं आये किन्तु कुछ ही समय बाद ये खबर जरूर मिली कि अब ये तीन रंग आप कभी भी उपयोग में ला सकते हैं, तिरंगा कभी भी लगा सकते हैं | वह दिन भी मेरे लिए बड़े सुकून का था और कुछ सालों बाद जब मैं इतना स्वतंत्र हुआ कि कुछ कपड़े खुद से खरीद सकूं तो एक दो कमीजों में जेब के ठीक ऊपर तीन रंगों की धारियां फेर दीं | वो बात और है कि यह प्रायः बेवजह लोगों के ध्यानाकर्षण का कारण बन जाया करता था/है |
आज यह सब क्यों लिखा > ??
पिछले कई सालों से इस एक दिन या अन्य राष्ट्रीय दिवसों की प्रासंगिकता पर लोगों से टीका-टिप्पणियां सुनता आया हूँ | इस साल भी होंगे, शर्तिया फेसबुक, अखबार, विविध भारती, एफएम इत्यादि इत्यादि पर तमाम जगह तमाम लोग अपने अपने ढंग से इस पर चर्चा करेंगे कि आज के दिन इतना उल्लास क्यों? यथा, भारत पूरी तरह आजाद नहीं है, हमारे घर में ना सही हमारे नौकर के घर में , बहुत गरीबी है, हमारा समाज छोटी सोच का है, हमे सुविधा नहीं है, हमे समर्थन नहीं है, हमारा जिला अलग नही है हमारा राज्य अलग नहीं है, हमे आरक्षण नहीं है, बिहार में नौकरी नहीं मिल रही, मुंबई में बिहारी नहीं रह रहे, जम्मू से पंडित निकले गये, दिल्ली में पानी नहीं, यूपी में ईमानदारी नहीं, हमारे ऊपर पाकिस्तान का हमला है, चीन का अजगर है, फलाना ढिकाना |
ये सारे कारण हैं जिन्हें सुनने या पढने के बाद तमाम लोग राय देते हैं इसके समर्थन में कि वाकई आज के दिन यह सब आयोजन आजादी के बाद की तमाम भूलों में से एक है या कम से कम ध्वजारोहण के बूंदी के लड्डू खा लेने के बाद तो स्वतन्त्रता दिवस कतई ही नहीं मनाते हैं | हालाकि मैंने ऐसे लोगों को दिवाली, ईद, प्रकाश पर्व, क्रिसमस और सेकुलर आयोजन नए साल (सॉरी नव संवत्सर भी है) पर ऐसा रुख या तेवर अपनाते नहीं देखा, वे होली को रंग फेंकते हैं, मुहर्रम मनाते हैं , कैंडिल जलाते हैं ........
तब एक देश के एक छोटे से उल्लास भरे आयोजन पर ही सारी तर्क और तूरीण क्यों ? क्या यह 15 अगस्त और 26 जनवरी नाम के दो दिनों के खाते में ही लिखा गया है ? इतना दुर्भाग्यशाली शायद ही कोई देश होगा जहाँ हम अपने सार्वभौमिक से त्योहारों पर आलोचना के तरकश से तीर बरसाते हैं, और अपने निरोध जैसे धर्म, जाति और समाज के त्योहारों पर सारे उल्लास और उत्सवधर्मिता की सारी पराकाष्ठाएं दिखला देते हैं | इस अजीब से वैचारिक मतभेद का भेद क्या है, मुझे पता नहीं, किन्तु मैं इतना जरूर कहूँगा कि मैं स्वयम इस दिन को कभी भुला नहीं सकता | यह मेरे बचपन से अब तक का शायद सबसे प्रतीक्षित रहने वाला दिन रहा है | और रहेगा भी |
माफ़ कीजिये ये दुर्भाग्य भी है कि कुकर्मी अधिनायकों ने, और हम आप सबने इन दिनों पर छुट्टी घोषित करके कर्मठता के सबसे एकीकृत स्वरुप के प्रतीक दिवस को अकर्मण्यता दिवस बना दिया है |
कुछ घंटों बाद ही वह जो कुछ उत्सव जैसा है जिसे मनाने का मैं हमेशा इन्तजार करता था, आने वाला है | पिछले कुछ सालों से ये क्रम टूट चुका है | अब सुबह देर से उठता हूँ इस दिन भी सात आठ तो बज ही जाते हैं, फिर हॉस्टल के गेट पर पहुचता हूँ साढे दस के करीब या कभी कभी एम्फीथियेटर भी चला जाता हूँ कुलपति का कार्यक्रम इत्यादि देखने | शाम चार बजे तक की उपलब्धि केवल कुछ दो चार लड्डू या मिठाई रहती है बस शाम का ही इन्तजार रहता है | जब अपनी एक दो बांसुरी और वह डायरी जिसमे कुछ देशभक्ति के अपने गीत मैंने लिख रखे हैं , उठा कर घाट की तरफ चल देता हूँ |
यूँ कुछ और खास सांस्कृतिक करतबों के साथ हमारा दिन बीत जाया करता था, और उस दिन की शाम का आना सबसे ख़राब लगता था क्योंकि दो कंधे ये एहसास कर लिया करते थे कि अब यह साल भर बाद ही आएगा, एक हथेली अपने हाथ में साल भर अब बर्फ के गोले की डंडी ही पकड़ेगी, उस छोटे तिरंगे को थामे रखना साल भर बाद ही हो सकेगा |
मैंने कई बार 15अगस्त की रात में जागते हुए भी ये सोचा कि क्या ये तीन रंग जो मेरा पसंदीदा समायोजन हैं, क्या मैं इन्हें साल भर नहीं देख सकता , साल भर अपने पास कुछ खास रूपों में नहीं रख सकता, उस समय बड़ी दीदी ने कुछ कानून और कायदे टाइप समझाये जो कुछ खास समझ में तो नहीं आये किन्तु कुछ ही समय बाद ये खबर जरूर मिली कि अब ये तीन रंग आप कभी भी उपयोग में ला सकते हैं, तिरंगा कभी भी लगा सकते हैं | वह दिन भी मेरे लिए बड़े सुकून का था और कुछ सालों बाद जब मैं इतना स्वतंत्र हुआ कि कुछ कपड़े खुद से खरीद सकूं तो एक दो कमीजों में जेब के ठीक ऊपर तीन रंगों की धारियां फेर दीं | वो बात और है कि यह प्रायः बेवजह लोगों के ध्यानाकर्षण का कारण बन जाया करता था/है |
आज यह सब क्यों लिखा > ??
पिछले कई सालों से इस एक दिन या अन्य राष्ट्रीय दिवसों की प्रासंगिकता पर लोगों से टीका-टिप्पणियां सुनता आया हूँ | इस साल भी होंगे, शर्तिया फेसबुक, अखबार, विविध भारती, एफएम इत्यादि इत्यादि पर तमाम जगह तमाम लोग अपने अपने ढंग से इस पर चर्चा करेंगे कि आज के दिन इतना उल्लास क्यों? यथा, भारत पूरी तरह आजाद नहीं है, हमारे घर में ना सही हमारे नौकर के घर में , बहुत गरीबी है, हमारा समाज छोटी सोच का है, हमे सुविधा नहीं है, हमे समर्थन नहीं है, हमारा जिला अलग नही है हमारा राज्य अलग नहीं है, हमे आरक्षण नहीं है, बिहार में नौकरी नहीं मिल रही, मुंबई में बिहारी नहीं रह रहे, जम्मू से पंडित निकले गये, दिल्ली में पानी नहीं, यूपी में ईमानदारी नहीं, हमारे ऊपर पाकिस्तान का हमला है, चीन का अजगर है, फलाना ढिकाना |
ये सारे कारण हैं जिन्हें सुनने या पढने के बाद तमाम लोग राय देते हैं इसके समर्थन में कि वाकई आज के दिन यह सब आयोजन आजादी के बाद की तमाम भूलों में से एक है या कम से कम ध्वजारोहण के बूंदी के लड्डू खा लेने के बाद तो स्वतन्त्रता दिवस कतई ही नहीं मनाते हैं | हालाकि मैंने ऐसे लोगों को दिवाली, ईद, प्रकाश पर्व, क्रिसमस और सेकुलर आयोजन नए साल (सॉरी नव संवत्सर भी है) पर ऐसा रुख या तेवर अपनाते नहीं देखा, वे होली को रंग फेंकते हैं, मुहर्रम मनाते हैं , कैंडिल जलाते हैं ........
तब एक देश के एक छोटे से उल्लास भरे आयोजन पर ही सारी तर्क और तूरीण क्यों ? क्या यह 15 अगस्त और 26 जनवरी नाम के दो दिनों के खाते में ही लिखा गया है ? इतना दुर्भाग्यशाली शायद ही कोई देश होगा जहाँ हम अपने सार्वभौमिक से त्योहारों पर आलोचना के तरकश से तीर बरसाते हैं, और अपने निरोध जैसे धर्म, जाति और समाज के त्योहारों पर सारे उल्लास और उत्सवधर्मिता की सारी पराकाष्ठाएं दिखला देते हैं | इस अजीब से वैचारिक मतभेद का भेद क्या है, मुझे पता नहीं, किन्तु मैं इतना जरूर कहूँगा कि मैं स्वयम इस दिन को कभी भुला नहीं सकता | यह मेरे बचपन से अब तक का शायद सबसे प्रतीक्षित रहने वाला दिन रहा है | और रहेगा भी |
माफ़ कीजिये ये दुर्भाग्य भी है कि कुकर्मी अधिनायकों ने, और हम आप सबने इन दिनों पर छुट्टी घोषित करके कर्मठता के सबसे एकीकृत स्वरुप के प्रतीक दिवस को अकर्मण्यता दिवस बना दिया है |
कुछ घंटों बाद ही वह जो कुछ उत्सव जैसा है जिसे मनाने का मैं हमेशा इन्तजार करता था, आने वाला है | पिछले कुछ सालों से ये क्रम टूट चुका है | अब सुबह देर से उठता हूँ इस दिन भी सात आठ तो बज ही जाते हैं, फिर हॉस्टल के गेट पर पहुचता हूँ साढे दस के करीब या कभी कभी एम्फीथियेटर भी चला जाता हूँ कुलपति का कार्यक्रम इत्यादि देखने | शाम चार बजे तक की उपलब्धि केवल कुछ दो चार लड्डू या मिठाई रहती है बस शाम का ही इन्तजार रहता है | जब अपनी एक दो बांसुरी और वह डायरी जिसमे कुछ देशभक्ति के अपने गीत मैंने लिख रखे हैं , उठा कर घाट की तरफ चल देता हूँ |
No comments:
Post a Comment