Sunday, 27 November 2011





मिलने  का ना मिलने से गजब का नाता है......
अगर मिल सको तो मिलना नही चाहोगे, और जो ना मिल सको तो मिलने की तडप हमेशा झुलसाती है....
इश्क है भी इतना आसां समंदर नही कि वो हो ही जाये जो तुम् चाहो...
तमाम उम्र चौराहे पर चांदनी निहारते लैम्प पोस्ट के नीचे भी बीत सकती है या बर्फ की ठेली के पास उसके साथ गोला खाते हुए भी...........
लेकिन इतना तो तय है कि जो तुम्हारा जमीर तक तुम से ना करा पाए, जिसे करने में तुम्हारी आत्मा भी बेवफाई दे जाए,,,,,,,,,,,,,,,,,, 
इश्क वो सब तुमसे करा देता है ...........................
सो इश्क जमीर से ऊपर है वजूद से ऊपर है........
इश्क इसीलिए परमात्म है ईश्वर है खुदा है......

कभी जो हम मिल पाते सुनहरी  शामों को याद करते,
आँगन की टूटी हुई खाट पर ही सही,
पुरानी बात  पर ही सही,
कुछ वक्त  बर्बाद तो करते,
ऋतु का बर्ताव भले ही मोहक ना होता ना सही,
कुछ बूंद  से ही सही, बारिश का एहसास तो करते,
नरम हाथो की तपिश भुला ना पाती गम सारे ना सही,
कुछ आंसुओं से मौसम आबाद तो करते,
जिंदगी इतनी कमजोर होगी सोचा ना था,
वरना यूँ अकेला छूट जाने की बात न करते.............

Wednesday, 23 November 2011

मेरा हर सवेरा नयी जिंदगी है,
क्योंकि ना चाहते हुए भी ये बात बिलकुल सही है,
कि हर सुबह से मैं अपनी नयी जिंदगी शुरू करता हूँ और पूरे दिन में उसे जीने की कोशिश....
जब लगता है कि आज जीत चुका हूँ तो रात हो जाती है.......
और जब लाख जतन कर हार जाता हूँ तो अगली सुबह का इंतजार बढ़ जाता है.....
मायने जीत या हार के हैं भी और नही भी..
फिर भी हर रोज जिंदगी को साँसों की हरकत भर से कुछ ज्यादा समझ लेना ये निशानी है कि इन रंगों से अठखेलियाँ करना ना सिर्फ मुझे सुकून देगा बल्कि खुद ये रंग जिस रंगोली में बिछेंगे जिस आँगन उतरेंगे, नए और ताज़ा तराने वहाँ कुछ जरूर छूट जायेंगे.........
तमाम उम्र तमामों की बीत भले रही होगी क्या वाकई? मेरी फ़िक्र में?
कहीं मैं यूँ तो नही! वैसा या ऐसा कैसा हूँ?
पर मुझे ये चिंता कब होती है ये याद नही.......

Sunday, 20 November 2011

है बात पुरानी खास नही,,,,, है कब की ये भी याद नही..................................


अँधेरी रात से उजियाली बात कहो,
राख बची रह गयी सड़क पर फुलझड़ी की,
उस राख की बेरुखी पर कोई सवाल नही,
मगर किसी के अंधे भविष्य पर अब भी मौन ना रहो,
रात भर उडती रहेगी शराब उसके बाप की,
जिसने गँवा दिया अपने हाथ की अँगुलियों का-
अगला हिस्सा,
किसी पटाखे का पेट बनाने में,
कुछ और नही,
उस अबोध का दर्द नही,
बस कभी आइसक्रीम ना पकड़ सकेंगी,
जो अंगुलियां,
उनकी मज़बूरी बेआस सहो,
कुछ कहीं घी दिया जलता तो बात बनती,
वो लौट आता इसी बहाने से वनिता सजती,
मगर है कहीं गरीबों का पोकर अड्डा,
जहाँ से लौटना तो है,
मगर तमाम कुछ गंवाकर,
सो घी तो नही मगर जल रहा है तेल का दिया,
मद्धिम रौशनी है जिंदगी की,
काला पड़ गया अलमारी का किनारा,
बुझते दीपक से उज्ज्वल नहीं,
जलते भविष्य की ना बाट जहो,
इस दीवाली इतने ही उजियाले की बात करो.....................