Friday, 23 December 2011

थक गया है सूरज

सूरज थक गया है....
इसे,
डूब जाने दो...

आँख नम् है,
भींग जाने दो...

शाम प्यासी है...
ढल जाने दो,

थोड़ी उदासी है,
बिखर जाने दो,...

तारों का रंज ठहरा,
झिलमिलाने दो...

दबे गुलाब मचल गए....
महमहाने दो...

खिड़कियाँ मौन हैं,
कुछ
हवा आने दो....

बेरंगी आसमान पर,
नए,
रंग,
छाने दो...

सवाल हो चुके हैं,
जवाब आने दो,

पूरी किताब हुयी,
हिसाब आने दो,...

उधड़ गया एकतारे का,
एकलौता तार भी,

धूल इस पार की,
पहुंची उस पार भी,

साँसे दो चार भी
ना मिल सकी उधर की,

आगे की बात हम ना
 कह सके प्यार की....

अनत रूप अधिकार, ह्रदय अक्ष पर सर्प सा,
प्रेम पीर आधार, सौ प्रपंच की जद भले,

व्यापक व्याकुल प्रेम, जिनके हृद वे अति विकल,
किन्तु रसिक का नेम, दिय बाती सो जोड़ इहि...........

Thursday, 15 December 2011

Drops and Rasa

Drops are the small duties, desires and expectations. We think that as possible as a person , as a student, as a part of society, as a civilian, we should have to perform these not important but initial duties.
These may give the spectator an outline of you, and not only you but other subgroups, you belong, like your society, your region, your country. But really, in this bread butter life we don't have time to consider about these drops...
Now RASA, a Hindi word, and really I can't define it but all the happiness, joy or problems even deep sadness are inside it, yet it's RASA.
Its the power and shower of life. Power as it force to live when you are in the war of survival,
and Shower, when you are sharing your appearance with nature or the the natural creatures....

So sad, we have also no time for RASA, in deed our life battles are based on the piece of bread, cup of tea, money in wallet, marks on board, friends on facebook.....
So how can we expect that we'll see the wounds of other, the problems of society, the image of nation......
May the day will come, when we'll free from our ego, our desire to proof the existence, and just to build the so-called 'level'.

With warm love in such a cold winter night

Sunday, 27 November 2011





मिलने  का ना मिलने से गजब का नाता है......
अगर मिल सको तो मिलना नही चाहोगे, और जो ना मिल सको तो मिलने की तडप हमेशा झुलसाती है....
इश्क है भी इतना आसां समंदर नही कि वो हो ही जाये जो तुम् चाहो...
तमाम उम्र चौराहे पर चांदनी निहारते लैम्प पोस्ट के नीचे भी बीत सकती है या बर्फ की ठेली के पास उसके साथ गोला खाते हुए भी...........
लेकिन इतना तो तय है कि जो तुम्हारा जमीर तक तुम से ना करा पाए, जिसे करने में तुम्हारी आत्मा भी बेवफाई दे जाए,,,,,,,,,,,,,,,,,, 
इश्क वो सब तुमसे करा देता है ...........................
सो इश्क जमीर से ऊपर है वजूद से ऊपर है........
इश्क इसीलिए परमात्म है ईश्वर है खुदा है......

कभी जो हम मिल पाते सुनहरी  शामों को याद करते,
आँगन की टूटी हुई खाट पर ही सही,
पुरानी बात  पर ही सही,
कुछ वक्त  बर्बाद तो करते,
ऋतु का बर्ताव भले ही मोहक ना होता ना सही,
कुछ बूंद  से ही सही, बारिश का एहसास तो करते,
नरम हाथो की तपिश भुला ना पाती गम सारे ना सही,
कुछ आंसुओं से मौसम आबाद तो करते,
जिंदगी इतनी कमजोर होगी सोचा ना था,
वरना यूँ अकेला छूट जाने की बात न करते.............

Wednesday, 23 November 2011

मेरा हर सवेरा नयी जिंदगी है,
क्योंकि ना चाहते हुए भी ये बात बिलकुल सही है,
कि हर सुबह से मैं अपनी नयी जिंदगी शुरू करता हूँ और पूरे दिन में उसे जीने की कोशिश....
जब लगता है कि आज जीत चुका हूँ तो रात हो जाती है.......
और जब लाख जतन कर हार जाता हूँ तो अगली सुबह का इंतजार बढ़ जाता है.....
मायने जीत या हार के हैं भी और नही भी..
फिर भी हर रोज जिंदगी को साँसों की हरकत भर से कुछ ज्यादा समझ लेना ये निशानी है कि इन रंगों से अठखेलियाँ करना ना सिर्फ मुझे सुकून देगा बल्कि खुद ये रंग जिस रंगोली में बिछेंगे जिस आँगन उतरेंगे, नए और ताज़ा तराने वहाँ कुछ जरूर छूट जायेंगे.........
तमाम उम्र तमामों की बीत भले रही होगी क्या वाकई? मेरी फ़िक्र में?
कहीं मैं यूँ तो नही! वैसा या ऐसा कैसा हूँ?
पर मुझे ये चिंता कब होती है ये याद नही.......

Sunday, 20 November 2011

है बात पुरानी खास नही,,,,, है कब की ये भी याद नही..................................


अँधेरी रात से उजियाली बात कहो,
राख बची रह गयी सड़क पर फुलझड़ी की,
उस राख की बेरुखी पर कोई सवाल नही,
मगर किसी के अंधे भविष्य पर अब भी मौन ना रहो,
रात भर उडती रहेगी शराब उसके बाप की,
जिसने गँवा दिया अपने हाथ की अँगुलियों का-
अगला हिस्सा,
किसी पटाखे का पेट बनाने में,
कुछ और नही,
उस अबोध का दर्द नही,
बस कभी आइसक्रीम ना पकड़ सकेंगी,
जो अंगुलियां,
उनकी मज़बूरी बेआस सहो,
कुछ कहीं घी दिया जलता तो बात बनती,
वो लौट आता इसी बहाने से वनिता सजती,
मगर है कहीं गरीबों का पोकर अड्डा,
जहाँ से लौटना तो है,
मगर तमाम कुछ गंवाकर,
सो घी तो नही मगर जल रहा है तेल का दिया,
मद्धिम रौशनी है जिंदगी की,
काला पड़ गया अलमारी का किनारा,
बुझते दीपक से उज्ज्वल नहीं,
जलते भविष्य की ना बाट जहो,
इस दीवाली इतने ही उजियाले की बात करो.....................