Sunday, 2 May 2021

बंगाल चुनाव २०२१ : मायने

मेरे लगभग पचास बंगाली मित्र तो होंगे । बी एच यू से, आई आई एस ई आर से, वैज्ञानिक वर्ग से, शिक्षा जगत से।

यद्यपि तृणमूल का जीतना बंगाल के विकास की एक बड़ी त्रासदी है, एक पढ़ा लिखा राज्य गरीबी और बदहाली में अभिशप्त है। फिर भी तृणमूल जीत गयी। ये तृणमूल की विजय नहीं, बल्कि भाजपा की पराजय है।

उन पचास मित्रों में से मैंने एक को भी भाजपा की हार पर ग़मज़दा नहीं देखा। कारण स्पष्ट है, भाजपा इस चुनाव में लोगों के लिए नहीं वोटों के लिए लड़ी। एक वाशिंग मशीन कल्चर बना जिसमें तृणमूल के भ्रष्ट नेता धुलकर साफ भाजपाई हो जा रहे थे। एक प्रचार का कल्चर बना जिसमें देश के पंतप्रधान दूरी और मास्क को धता बताकर, भीड़ देख कर, दो साल के बच्चे की तरह उत्साहित थे। ऐसी संस्कृति से सर्कस चल जाते हैं, दो, चार, छह साल। सरकारें नहीं बनती। नहीं चलती।

भाजपा का 2014 का उदय बहुत प्रभावशाली था, इसलिए नहीं कि मोदी बड़े नेता हैं, न इसलिये कि हिन्दू 'खतरे' में भाजपा को ही वोट देगा। बल्कि इसलिए कि लोगों को उम्मीद दिखती थी। बहुत सारे लोगों को उम्मीद दिखती थी। कुछ को 370 हटाने की, कुछ को मन्दिर बन जाने की। जैसी जिसकी उम्मीद थी, दिखती तो थी।

बस उसी भरोसे ने नोटबन्दी, हिट एंड ट्रायल्स ऑफ जी एस टी, हिट एंड ट्रायल्स ऑफ पॉलिसीस, जोक ऑफ डेमोक्रेसी (महाराष्ट्र की रात वाली सरकार), जोक ऑफ पब्लिक प्रोटेस्ट (सी ए ए, कृषि कानून) - के रूप में अपनी धज्जियां उड़ा लीं।

अब एक निष्ठावान कार्यकर्ता पूछेगा कि भाजपा क्या करती, क्या झुक जाती? जवाब है नहीं। लोकतंत्र में झुकना नहीं उठना जरूरी है। बोलना जरूरी है, पर सुनना भी जरूरी है। एकतरफा संवाद नहीं, वार्तालाप जरूरी है। चाय पर चर्चा बोलना ही नहीं, विपरीत धाराओं को जगह देना भी जरूरी है। आप नहीं देते तो आप दीदी से कितना बेहतर हो।

बस यही था। सबको पता था कि दीदी के आने से न अविकसितता रूपी बंजरपन खत्म होगा, न साम्प्रदायिक तुष्टिकरण, न राजनीतिक हत्याएं। पर फिर जनता को लगा "और ऑप्शन क्या है?" भाजपा जमीन छोड़कर सूर्य लपकना चाहती है। हर राज्य में, हर चुनाव में। बस यही, दुर्भाग्य से, उसके अंत की ओर जाता हुआ रास्ता है। कार्यकर्ताओं को चिंतामुक्त रखने वाली पार्टी आज कार्यकर्ताओं की लाशें देखकर भी चुनाव रैली करना चाहती है।

18 अप्रैल को मोदी की बंगाल रैली ने भाजपा का भविष्य अगले कई वर्षों के लिये सुनिश्चित कर दिया था ।

बस यही कारण है, कि पचास के सैम्पल साइज़ पर भी मुझे कोई भाजपा के हारने ओर ग़म जताने वाला नहीं मिला।

बाक़ी दिल बहलाने को और ‘साहब’ के गुण गाने को, असाम की जीत अच्छी है।

Friday, 26 May 2017

मेरी बेटी !

आखिरी पोस्ट एक कविता !
मेरी बच्ची,
जब भी पैदा हो,
या मैं उसे गोद ले सकूँ, 
मैं उसे व्यावहारिक बनाऊंगा,
ताकि लोगों की नज़र में वह....
मतलब कि,
लोगों की नज़र में वह आ ही न सके !
बेटी, तुम लिपस्टिक, पाउडर या पैरों के बाल हटवा कर,
या आधी बाहों से कम, या कि नाभि से उपर
या खुली टांग वाले, या पीछे गले को दिखाते हुए
कपडे मत पहनना !
मुमकिन है कि मैं एक दो टाट के बोरे,
या पूरा सूती कफ़न खरीद कर रख दूंगा !
तुम्हे पहनने को कमी न होगी,
और मुझे इज्जत की कमी न लगेगी !
बेटी, तुम तेज आवाज में न बोलना,
'मैं आपकी बहन जैसी हूँ,'
'माँ जैसी हूँ,'
'बेटी जैसी हूँ,'
इन वाक्यों का अभ्यास करना !
शीशे के सामने, धीमी आवाज में !
लाचारी ना भी हो तो पैदा कर लेना !
क्या फर्क पड़ता है ?
बाकी सारा ज्ञान बकवास है,
बस यही आखिरी ज्ञान है !
बेटी, ये आखिरी ज्ञान,
प्रेम मत करना, और
अपनी सफाई के रुमाल को,
पेपर से ढँक कर,
बक्से में छिपा देना !
घर में आये रिश्तेदार भी कई बार,
अपनी अज्ञानता से तुम्हे अश्लील समझ लेंगे !
और फिर जब तुम्हारा बलात्कार होगा,
तो तुम्हे निर्लज्ज कहा जायेगा !
किसी लड़के के साथ घूमना-
नहीं, नहीं, कभी नहीं !
प्रेम - तो बिलकुल नहीं !
प्रेम बलात्कार से भी बुरा होता है बेटी,
प्रेम में आत्ममिलन का खतरा होता है,
जीवन के सर्वोत्तम सुख को जीने का अवसर होता है,
यदि ये तुम्हे मिल गया तो.....
दुनिया का क्रम टूट जायेगा,
धरती चलनी बंद हो जाएगी !
तो भोग्या बन के रहना,
उचित समय पर,
साथी, दोस्त, रिश्तेदार या पति,
तुम्हारा भोग कर सकें !
क्योंकि बेटी,
तू आदमी और जानवर के बीच झूलती चिड़िया है,
या तो पिंजरे में, या तश्तरी में !
मैं नहीं चाहता तुम्हे कोई परोस दे !
और मुझे पछताना पड़े कि,
गोद या जन्म,
मैंने किसी लड़के को क्यों नहीं दिया !
सो बेटी,
अपने बाप पर दया .....
दया कौन करेगा ?
तुझे इस दुनिया में आना है या अनाथालय से मेरे घर -
तो ये सब मानना पड़ेगा !
समझी कि नहीं ?
तेरा दिमाग ख़राब न हो कभी !
बेवकूफ है अपनी माँ की तरह

Saturday, 8 October 2016

पुनर्जन्म

दहाड़कर मरने कौन जाता है,
जिस अनुभव का मूक रहना जरूरी,
शोर कम होना चाहिए जब आप
जलने के आखिरी पड़ाव पर हों,
जिंदगी के इंतज़ार को,
मौत पर ख़त्म होना होता है !

पर कभी कभी,
ऐसा नहीं होता,
कोशिश होती है, समझो जैसे रस्साकशी,
एक दीमक और लकड़ी के बीच जैसी,
जब पाउडर हो चुकी सतह के अंदर,
मौजूद होती है कोई गाँठ,
जो न कटती है, न निकलती है !
कभी कभी लकड़ी की भी विजय होती है !

कोशिश होती है, समझो जैसे पिघलाने की,
एक लकड़ी का बना जत्था,
पिघला देता है लोहे को भी,
कभी कभी, 1000 चोटों के बाद
1001वां प्रहार, चूर चूर कर देता है,
शक्ति, अभिमान, और निराशा,
निराशा, !
कब चूर होती है?
जब पसीने की एक बूंद,
बींध देती है बंज़र ज़मीं को,
और भिंगो देती है ईश्वर का आँचल !

कोशिश होती है समझो जलने की,
एक दीपक, जिसे बुझने की कोशिशें जारी हों,
हवा, बाती सब खिलाफ हो जाते हैं,
यकीन मानिए, आप मैं नहीं,
कभी कभी एक दिए का भी साँस लेना मुश्किल होता है !
वातावरण उसका भी दम घोंटता है,
और जिंदगी मौत हो जाता है,
जलने बुझने का द्वंद्व !
पर कभी कभी,
कपास का एक कतरा उलझ जाता है,
आंधी तूफान से !
दिए का कमजोर हिस्सा शक्तिशाली हो जाता है !
वो कतरा
जिसे शायद मंजूर न रहा होगा,
किसी सूत का हिस्सा बनना,
उसका अल्हड़पन, मशीन या कि करघे को भाया नहीं होगा,
वह कतरा ही टिक जाता है,
खूंटा गाढ़ कर जलता है,
और बुझता नहीं !

कोशिश होती है समझो उगने की,
जब सीमेंट कंक्रीट में मेरे जीने की जगह,
वजह
छीन ली जाती है,
और मैं हाथ बांधे , बांस बल्लियों का बंधना,
ईमारत का बनना,
और खुद का बिखरना देखता हूँ,
लोग रहना शुरू कर देंगे मेरे छलनी सीने पर
जल्दी ही !

पर कभी कभी ,
मेरे अंदर अंकुरण होता है,
आत्मनकुरण
जो फोड़ देता है रोम रोम,
और बाहर निकलता है तोड़ते हुए,
कंक्रीट को भी,
ये अंकुरण मैदान में, मिटटी में नहीं होता ,
ये तभी होता है
जब मुझे दबा दिया जाता है,
जब मैं बुझने वाला होता हूँ,
जब मैं मिटने वाला होता हूँ,
जब मैं गिरने वाला होता हूँ,

जिंदगी और मौत के इसी संकरे फासले के बीच
मेरा पुनर्जन्म होता है !

Thursday, 5 May 2016

नक्शा, नक्शेबाज़ी और लकीरों का खेल

जम्मू-कश्मीर की बारीक रेखाएं : सही कौन 



तो खबर है कि यूँ ही मुल्क के नक़्शे को आप गलत नहीं दिखा सकते, कुछ करोड़ का जुरमाना, सात साल की सजा का एक प्रावधान सुनिश्चित किया गया है ! यद्यपि तब, जब कि मैं ये लिख रहा हूँ शायद मेरा लिखा इस बात के दायरे में आ जाये, सो जो लिखा है बड़ी सावधानीपूर्वक लिखा है

आप जब ये अधिसूचित करते हैं कि भारत का नक्शा गलत दिखाने पर सजा होगी तो कुछ चीजें, अपिरिभाषित और अस्पष्ट रह जाती हैं | मसलन, सजा कैसे होगी ? गलत नक्शा भूल से दिखाने पर भी ? अब जैसे कि ऊपर एक चित्र है जिसमे मैंने दो नक़्शे दर्शाए हैं, पहला गूगल के ब्रिटिश संस्करण का और दूसरा भारतीय संस्करण का | मुद्दे की बात यह है कि सेंट्रल कराकोरम नेशनल पार्क जैसी जगह जो कि वैश्विक स्तर पर पाकिस्तानी बताई जाती है, को हमने अपने सर्वे ऑफ़ इंडिया में जगह नहीं दी है अपितु समूचे कश्मीर के नक़्शे को ही प्रतिबंधित बताया है | विदेश नीति का कोई तो ऐसा हिस्सा है जिसकी मुझे समझ नहीं, क्योंकि हमारा विदेश मंत्रालय भारत के नक्शे को वैसा ही दिखाता है जैसा कि गूगल, अर्थात, आजाद कश्मीर (?) (पश्चिम में), नेशनल कराकोरम पार्क (ऊपर का हिस्सा) और अक्साई चिन (पूर्व का हिस्सा), ये सारे विवादित होकर भी भारत के हिस्से माने गये हैं |

अंग्रेजो से एक चीज हमने बहुत अच्छी सीखी, विवादों को लम्बे समय तक जारी रखने की | क्या है न कि हम भारतीय इतने प्रतिभावान हैं कि बहुत सारा काम भी कम समय में कर लेते हैं, तो बाकी समय लड़ाई, बहस, मुद्दे में बर्बाद होना ही चाहिए , चाहे वह अयोध्या में मस्जिद-मंदिर का मुद्दा हो, दिल्ली का आधे-पूरे राज्य का, और तमाम नदियों में पानी के बंटवारे का | असल में जो भी हमे मिला, शायद थोडा जल्दी मिल गया | कुछ एक शताब्दी की गुलामी और होती तो इस जमीन का मोल समझा देती जो कि आज हम समझते नहीं | खैर मुद्दे की बात, तो, जो हमने सीखा अंग्रेजों से वो ये, कि मुद्दा कैसा भी हो जिन्दा रहना चाहिए, वजह यही थी शायद कि एक बार 1965 में हम काफी सारे कश्मीर को हद में ले चुके थे, पर दानवीर जो ठहरे, दान करके चले आये | और माशाल्लाह, तब से सरकारें भी सिर्फ दिल्ली की सर्दी गर्मी झेलती रहीं, कश्मीर और कन्याकुमारी का क्या हाल था किसी ने जाना तक नहीं | कारगिल युद्ध (जिसमे हमने ब्रिटिश नक़्शे में दिखाए गये, अपने खुद के हिस्से को ही वापस लिया, आज़ाद कश्मीर या गिलगित या अक्साई चिन को नहीं) के बाद अचानक इन एक दो सालों में जब कश्मीर मांगे आज़ादी की बहस शुरू हुई, और अचानक सरकार को लगा कि देश पूरा दिखने के लिए कुछ प्रावधान, कुछ कानून या कुछ आदेश दे दिए जाएँ |

दे दीजिये हुज़ूर जरूर दे दीजिये, जनता द्वारा चुनी गयी सरकार का हुक्म सर आँखों पर | पर हाँ कभी जो आपके दिल में कुछ और आये तो, इतना जरूर कीजियेगा कि कश्मीर और अरुणाचल की अवाम को महफूज़ होने का और अपनेपन का एहसास करा दीजियेगा, क्या पता है, जितना आज है (अपने नहीं, दूसरो के नक़्शे में ही सही, अपने में तो दूसरो से दोगुना कश्मीर है) हम उतने को ही बचा के रख पायें | बाकी गिलगित और अक्साई चिन के लिए पडोसी की गलती और संयुक्त राष्ट्र संघ को समझाने का इन्तजार करिए, क्यूँ कि या तो आपने सामने की लड़ाई (और उसमे भी जीत कर फिर से वापस ना कर आयें तो) या वैश्विक समुदाय को विश्वस्त करने पर ही उतना कश्मीर और अरुणाचल आपका हो सकेगा जितना विदेश मंत्रालय के अनुसार है, या कि जितने प्रकाशन के लिए आपने सजा का प्रावधान किया है |

आपकी जमीन के बंदरबांट से सैकड़ों मील आगे निकला हुआ, भारत का नागरिक !