दहाड़कर मरने कौन जाता है,
जिस अनुभव का मूक रहना जरूरी,
शोर कम होना चाहिए जब आप
जलने के आखिरी पड़ाव पर हों,
जिंदगी के इंतज़ार को,
मौत पर ख़त्म होना होता है !
पर कभी कभी,
ऐसा नहीं होता,
कोशिश होती है, समझो जैसे रस्साकशी,
एक दीमक और लकड़ी के बीच जैसी,
जब पाउडर हो चुकी सतह के अंदर,
मौजूद होती है कोई गाँठ,
जो न कटती है, न निकलती है !
कभी कभी लकड़ी की भी विजय होती है !
कोशिश होती है, समझो जैसे पिघलाने की,
एक लकड़ी का बना जत्था,
पिघला देता है लोहे को भी,
कभी कभी, 1000 चोटों के बाद
1001वां प्रहार, चूर चूर कर देता है,
शक्ति, अभिमान, और निराशा,
निराशा, !
कब चूर होती है?
जब पसीने की एक बूंद,
बींध देती है बंज़र ज़मीं को,
और भिंगो देती है ईश्वर का आँचल !
कोशिश होती है समझो जलने की,
एक दीपक, जिसे बुझने की कोशिशें जारी हों,
हवा, बाती सब खिलाफ हो जाते हैं,
यकीन मानिए, आप मैं नहीं,
कभी कभी एक दिए का भी साँस लेना मुश्किल होता है !
वातावरण उसका भी दम घोंटता है,
और जिंदगी मौत हो जाता है,
जलने बुझने का द्वंद्व !
पर कभी कभी,
कपास का एक कतरा उलझ जाता है,
आंधी तूफान से !
दिए का कमजोर हिस्सा शक्तिशाली हो जाता है !
वो कतरा
जिसे शायद मंजूर न रहा होगा,
किसी सूत का हिस्सा बनना,
उसका अल्हड़पन, मशीन या कि करघे को भाया नहीं होगा,
वह कतरा ही टिक जाता है,
खूंटा गाढ़ कर जलता है,
और बुझता नहीं !
कोशिश होती है समझो उगने की,
जब सीमेंट कंक्रीट में मेरे जीने की जगह,
वजह
छीन ली जाती है,
और मैं हाथ बांधे , बांस बल्लियों का बंधना,
ईमारत का बनना,
और खुद का बिखरना देखता हूँ,
लोग रहना शुरू कर देंगे मेरे छलनी सीने पर
जल्दी ही !
पर कभी कभी ,
मेरे अंदर अंकुरण होता है,
आत्मनकुरण
जो फोड़ देता है रोम रोम,
और बाहर निकलता है तोड़ते हुए,
कंक्रीट को भी,
ये अंकुरण मैदान में, मिटटी में नहीं होता ,
ये तभी होता है
जब मुझे दबा दिया जाता है,
जब मैं बुझने वाला होता हूँ,
जब मैं मिटने वाला होता हूँ,
जब मैं गिरने वाला होता हूँ,
जिंदगी और मौत के इसी संकरे फासले के बीच
मेरा पुनर्जन्म होता है !